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Sunday 25 January 2015

आप सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये

आप सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये

Wednesday 21 January 2015

Welcome Mr. Obama- Writer - Richa Chaturvedi

Mr. Barack Obama as you are coming to our country India to grace this year’s re-public day function………Warm welcome. 

Indian administration is turning no stone un-turn to ensure your stay safe, smooth and at the same time pleasant. We all hope you enjoy every moment of it. When you are here top Government officials, industrialist and repute people of India in various fields will be interacting with you. During this period you will be travelling through the best of roads and staying and seeing clean and beautiful parts of our country. News channels and papers are filled with the reports of preparations going on , So honestly I have nothing more to add here . 

But at the same time as a common citizen of India   I want to say that there are millions of Indians who are equally excited and happy on your visit. Millions of Indians who knows for sure that they will not at all get a chance to see you even if you are here  .You may find some of them waving from crowd with enthusiasm. They don’t have any political hopes from your visit and don’t understand diplomatic code of conducts. Many of them are not part of such a beautiful and well-kept area’s which you will be seeing most of time. Believe me there is much more in India then you will be seeing during this period  ,not so beautiful ,there roads are narrow ,houses are small but hearts are big enough to welcome its guest with open arms. 

If not all, I can surely say most of Indians are feeling special that someone special from a strong country is  visiting them on their auspicious occasion. From all of those , Welcome Mr. Obama………..:) .

सपने की ख़ोज... - लेखिका - आनंदमयी


अपने घर के बंद उस दरवाजे से पुछा
अपनी गली के उस चौराहे से पुछा...
कभी तो देखा होगा मेरे सपनो को वहा से चलते हुए...
किस्मत और निराशा की आग में जलते हुए...
पुराने उस नीम के पेड़ से पुछा...
रास्ते में भटकी उस भेड़ से पुछा...
कभी तो पुकारा होगा मेरा नाम ले के ...
कभी तो निकले होंगे मेरे सपने उन्हें सलाम दे के ...
फुनगी पे लगे उस मंजर से पुछा...
खाली पड़े उस खेत बंजर से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को मस्ती में सनकते हुए...
कभी तो देखा होगा उन् नन्हे सपनो को पनपते हुए...
आते जाते हर त्यौहार से पुछा...
सावन की पहली उस फुहार से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को नया कुछ सीखते हुए...
अपनी ही फुहार में मस्त हो भीगते हुए...
पावन उस नदी की धारा से पुछा ...
उसी नदी के किनारे से पुछा...
उन्होंने तो देखा होगा सपनो को यही जलते हुए....
अपनी धारा में ही कही बहते हुए...
पर किसी ने कुछ ना बतया ...
मुझे मेरे घर निराश ही लौटाया...
अँधेरे में बैठी कुछ सोचने लगी...
तो लगा सपने को ढूँढना भी तो एक सपना ही था...
मन में ही चुप के बैठा था कही...
वो कभी कही गया ही नही...
वो तो हमेशा से अपना ही था...

Tuesday 20 January 2015

किरदार- लेखिका - कविता हिन्ड्वान

मानो तो है अहम किरदार रोशनी का
जानो तो है परम किरदार आशा का

डूबते को तिनके, भटके को मँजिल का
हौंसला देता हमेशा किरदार सहारे का

दरिया, दखत, बुत को खुदा का दर्जा
ईमानदार इतना किरदार इबादत का

माँ की ममता, पिता के साया का
महत्वपूर्ण जीवन में किरदार प्रोत्साहन का

सँभाल कर बना आशियाँ प्यार का
कर सकता बरबाद किरदार जवानी का

Sunday 18 January 2015

महक - लेखक मोहित






पहली बारिश की बूंदें
मिट्टी में मिलने को
कैसी बेताब थी
... आतुर 

बेसब्र सी बूंद मिट्टी पर गिरि
अपने गिरने का निशान छोड़ा
और मिट्टी में कहीं खो गयी
... नहीं नहीं खोयी नहीं
जज़्ब हो गई 

ओर अपने जज़्ब होने पर
दे गई सौंधी सी महक
मिलन की महक...

दस्तक - लेखक मोहित

 
तुमने सुनी होगी वो कहानी 
सुनसान रेगिस्तानो पहाड़ियों पर
एक जादूई दरवाज़े की कहानी

रोशनी से भरे उस दरवाज़े पर
सुना है की कोई दस्तक ना दे सका

यूं ही जब मुफलिसी की गिरफ्त में
टूटते तोर से, लकीर रोशनी की बना के,
अरमान सारे ज़मीन पर गिर कर बिखर गये
और होसलों के दिये भुजने को थे

काले से भी काले उदासी के बादल
मेरे कंधे पर अपना हाथ रखने को आतुर थे
मैने ज्यों ही उन काले बादल को झिड़का
इस दस्तक की आवाज़ हुई....

Saturday 17 January 2015

मतलब- नवीन राणा

बिन मतलब की बेमतलब सी इन् बातों का अब मतलब क्या?
टूटे, बिखरे, उधड़े से इन् ख़्वाबों का अब मतलब क्या?
खो गया जो पाया था, उस पर रोने का अब मतलब क्या?
नहीं सुनता कोई तेरी इस दुनिया में, फिर बिलखने का मतलब क्या?
तू तेरा, तेरा रब्ब तेरा है, किसी और का मुंह तकने का फिर मतलब क्या?
तू खो देता है पर वो तो देता है, खाली झोली का फिर मतलब क्या?
खेल उसी का वो ही जाने, बिसात बिछाने का फिर मतलब क्या?
तेरे बस का विचार नहीं ये, गहरी सोच का फिर मतलब क्या?
तू राही है, तुझे चलना है, रुकने का फिर मतलब क्या?
चलता जा तू तान के सीना, अब झुकने का मतलब क्या?
मोड़ दे रुख तूफानों का, अब तेरे मुड़ने का मतलब क्या?
मुर्शिद तेरा साथ है तेरे, डरने का फिर मतलब क्या?
घर तेरा तो और कहीं, इस दुनिया के आशियाने का मतलब का?
न संगी, न साथी कोई, कदमताल का फिर मतलब क्या?
हाथ में तेरे तलवार है सत्य की, आदमखोरों का फिर मतलब क्या?
नूर में नूर मिला कर देख, अंधियारे का फिर मतलब क्या?




मेरे गुरु, आदर्श, मार्गदर्शक श्री अरविन्द गौर को समर्पित -लेखक - राजीव कोहली

मुझ आज भी याद है जब मैंने पहली बार अरविन्द सर को सभी दर्शकों को सम्भोदित करते सुना था। दिन था शुक्रवार दस कहानियां नाटक के सफल मंचन के बाद कर्टेन कॉल के बाद अरविन्द सर नाटक के बारे में, नाटक को जीवंत बनाने वाले एक्टर्स के अनुभव दर्शकों को बता रहे थे। ये सब मैं कैसे जनता हूँ , ये सब मैं इसलिए जनता हूँ क्योंकि मैं भी दर्शकों की भीड़ का हिस्सा था। पूरा लोक कला मंच का ऑडिटोरियम खचाखच दर्शकों से वहार हुआ था। लेकिन पुरे एक घंटा तीस मिनट जितनी देर नाटक चला कोई भी उठ कर बहार नहीं गया। पहली बार अहसास हुआ था की नाटक, थिएटर से अब तक न जुड़ कर में अपने जीवन में क्या खो रहा था ।अरविन्द सर के एक एक शब्द प्रभावित कर रहे थे। मेरे थिएटर से जुड़ने के निश्चय को और भी पक्का कर रहे थे। बस इंतज़ार था की कब अरविन्द सर मिलने के लिए बुलाएं। हालाँकि मन में ये शंका थी की पता नहीं मैं थिएटर के लिए काबिल भी हूँ या नहीं । फिर वो वक़्त आया जब उनसे मिलने का अक्सर प्राप्त हुआ। उन्होंने सबको जो भी थिएटर से जुड़ना चाहते थे अस्मिता से जुड़ना चाहते से उन्हें शनिवार को आने के लिए कहा।तब से लेकर अभी तक जितना भी अरविन्द सर को जान पाया हूँ उनकी हर बात ने बस प्रभावित ही किया है। न केवल मेरे विचारों को पर मेरे जिंदगी जी तरफ देखने और समझने के नज़रिये को भी प्रभावित किया है। एक ऐसा सकरात्मक नजरिया जो शायद  जिंदगी की इस कशमकश में कही खो गया था। 

सच कहूँ तो अस्मिता में आक्टर नहीं बनाये जाते पर पहले एक अच्छा इंसान बनने की शिक्षा दी जाती है। अपने सभी दुखों को भूल कर किरदार को मेहसूस करने की शिक्षा दी जाती है। एक ऐसा सूकून मिलता है अस्मिता में हर हफ़्ते जो पूरे हफ़्ते के सभी चिन्ताओं को मिटा देता है। गर्व मेहसूस होता है की अरविंद सर ने जो मुहिम शुरू की थी हम सब भी उस मुहिम का हिस्सा हैं। इस समाज को साफ सुथरा थियेटर देने की मुहिम। थियेटर की परंपरा को बनाये रखने की मुहिम। नुक्कड़ नाटक को हर आम आदमी के साथ जोड़ने की मुहिम। जितनी बार भी उनके साथ समय बीताने का मौका मिला है क्लास में, कुछ नया सीखने को मिला है, जिंदगी को सकरात्मक नज़रिये से देखने का मौका मिला है। बस इतना ही कहूंगा सर की अस्मिता अब हमारी जिंदगी का अटूट हिस्सा बन चुका है। शुक्रिया सर, हमे ये मौका देने के लिये। 

Wednesday 14 January 2015

एक अमूलय जीवन- लेखक राजीव कोहली

जीवन इश्वर की दी गयी एक अमूलय भेंट है। पर क्या हम और आप इस जीवन की मेहत्वता को समझ पाएं है। शायद नहीं, या शायद कोशिश करते तो हैं पर समझ नहीं पाते। खैर, वजह चाहे जो भी हो सच तो ये है की जीवन के अर्थ को समझ पाना कोई आसान काम नहीं है। जब एक नवजात शिशु अपनी पहली सांस लेता है तो शायद उसे भी ये ज्ञान नहीं होता की वो इस सृष्टि की सबसे मुश्किल पहेली का एक पात्र मात्र है। बच्चे भगवान्  का रूप होते हैं, शायद इसीलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चों में कोई कल छल कपट नहीं होता। उनके  लिये सच सच ही होता है जिसे किसी भी तरह का झूठ अपने परदे में छुपा नहीं सकता। ये हम ही हैं जो बच्चों को बताते हैं की झूठ भी कुछ होता है। इस जीवन की दौड़ में हम सुख के पीछे भागते रहते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं की भगवान् हर मोड़ पर दुखों की आग में तपा के हमे सुखों को महसूस करने का अनुभव करवाते हैं। जैसे कोई काम किये बिना उसका फल नहीं मिल सकता उसी तरह दुखों का सामना किये बिना सुख का अनुभव सार्थक नहीं है। इंसान ने ही जात पात के भेद भाव बना डाले। इंसान ही है जिसने धर्म के नाम पे समाज को बाँट दिया। इंसान ही है जिसने मोह भाव को खुद से कभी अलग नहीं होने दिया।कोई धर्म हमे धर्म के नाम पे आतंक फैलाना या लोगों को मारने के लिए नहीं सिखाता। सिखों के गुरु श्री धन धन गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी शस्त्र उठाये पर  अपनी और सिखों के बचाव के लिए। श्री राम ने भी शस्त्र उठाये तो अधर्मियों का नाश करने के लिए। अर्जुन ने भी कुरुक्षेत्र में अपनों के सामने शस्त्र अधर्म का नाश करने के लिए उठाये थे। तो फिर अब हम क्यों बेगुनाह लोगो को मारने के लिए शस्त्र उठाते हैं।चलिये इस जीवन को जीने लायक बनाये। चलिये इस आमुलय जीवन के मूलय को समझें

सितारा हूँ मैं - लेखक - सुमित झा

मेरी यह स्वरचित कविता एक ऐसे झुग्गी झोपडी में रहने वाले बालक के इर्द-गिर्द घूमती है जिसे इस सभ्य और शिक्षित समाज ने गन्दा और मनहूस कह कर दुत्कारा है 

लेकिन यह बालक कुछ अजीब सा है 
गरीब होने का अफ़सोस बिलकुल नही है 
इसके हौसले अभी बुलंद हैं 
कहता है एक दिन सितारों सा चमकेगा 
कहीं दूर गगन में

 



आईये इसकी बातों को सुने-
ग़र्दिश में ही सही नीले आसमां का सितारा हूँ मैं
दूर ही सही झील सी आँखों का तारा हूँ मैं
इस घोर अन्धकार में ही सही कल एक चमकता उजियारा हूँ मैं सितारा हूँ मैं
मज़धार में ही सही अनंत सागर का किनारा हूँ मैं
यह रूखे होठ ही सही इक मुस्कान प्यारा हूँ मैं सितारा हूँ मैं
हैं लड़खड़ाये आज कदम तो क्या यह डगमगाती चाल ही सही अनगिनत अधेरो का सहारा हूँ मैं सितारा हूँ मैं
हैं पैरों में आज बंदिश तो क्या संसार अमीरों की रंजिश तो क्या बंद पड़े मंदिर मस्जिद के पट तो क्या यह सीमित गलियारा ही सही वह बादल मनचला आवारा हूँ मैं सितारा हूँ मैं
हैं पग में पड़े छाले तो क्या उदर में धधकते ज्वाले तो क्या जगा मैं रातें सहश्र तो क्या यह अत्यंत साधना ही सही कल एक अमिट फ़साना हूँ मैं तराना हूँ मैं
सितारा हूँ मैं

Tuesday 13 January 2015

दिल्ली का ट्रैफिक उफ़ तौबा

यह ब्लॉग से वो सब लोग खुद और भी जोड़ के देख पाएंगे जो हर रोज़ दिल्ली के ट्रैफिक से झूझते हैं। जी हाँ दिल्ली में ट्रैफिक से झूझना ही पड़ता है। खास तौर पे जब ऑफिस आपके घर से 40 या 50 किलोमीटर की दूरी पे हो। दिल्ली में अगर आप नए आये हैं और जिसी कट्टर दिल्ली वाले से पूछेंगे की भाई साहेब जरा ये तो बताएं की धौला कुआँ से करोल बाघ कितनी   दूर है। तो चौंकिएगा नहीं की अगर आपको जवाब मिले जी बस 20 मिनट में पहुँच जायेंगे। जबकि आप सोच रहे होंगे की किलोमेतव्र में कितना दूर है यह बताओ भाई। दिल्ली में तो यही दूरी वक़्त के हिसाब से घाट जाती है या बाद जाती है। जैसे अगर सुबह 8 बजे से 10 बजे तक अगर धौला कुआँ से करोल बाघ जाना हो तो 20 मिनट नहीं कम स ेकम 45 मिनट तक  लग सकते हैं यही अगर आप 11 बजे से 5 बजे के बव्वच जायेंगे तो 20 मिनट औए फिर अगर 5 बजे से 8 बजे तक फिर से 45 से 60 मिनट तक भी लग सकते हैं। ऐसा है दिल्ली के त्रफडीसी का कहर। सबसे बड़ी समस्या है लोगों का सड़क सुरक्षा नियमो के प्रति सवेंदनशील न होना। लोग जानते तो हैं की हेलमेट न पहनने से दुर्घटना होने पे जान भी जा सकती है लेको फिर भी फैशन के चलते हेलमेट नहीं डालते। गाडी चलाते मोबाइल पे बात करते हैं । लेन में गाडी नहीं चलाते। दिल्ली में हर 5 मं में एक न एक दुर्घटना होती है। न जाने दिल्ली का ट्रैफिक कब सुधरेगा। रुकिए शायद इसका जवाब हमारे ही पास है। ये तभी सुधेरेगा जब हम सब सुधरेंगे। तो आइये वादा करें की सावधानी से चलेंगे और सड़क सुरक्षा के सभी नियमो का पालन करेंगे। नहीं तो बस यही निकलेगा मुंह से दिल्ली का ट्रैफिक उफ़ तौबा। 

युवा शक्ति- लेखिका ऋचा चतुर्वेदी

Go forward without a path,
Fearing nothing, caring for nothing!
Wandering alone, like the rhinoceros!
Even as a lion, not trembling at noises,
Even as the wind, not caught in the net,
Even as the lotus leaf, untainted by water,
Do thou wander alone, like the rhinoceros!
ये  गौतम बुद्ध की  कहे शब्द है  जिनसे  स्वामी विवेकानन्द ने  प्रेरणा ली थी |१२ जनवरी स्वामी विवेकानन्द की जन्मतिथि है| इस महान दिन को भारत में युवा दिवस के रूप मे मनाते है| युवा पीढी हमेशा ही देश का दुनिया का भविष्य समझी जाती है , पर आज की युवा पीढी के लिए शायद चमक इतनी ज़्यादा है कि रास्ता और मन्ज़िल दोनो ही धुन्धला गये है| आशाओं को कस के थामने की जरुरत है फिर से विवेकानन्द .जैसे लोगो के संदेशो को समझने की जरुरत है| ,खुद पर विश्वास और कुछ बेहतर करने का हॉसला ही एक युवा की ताकत है, निराशा शब्द युवा शब्दकोष से दूर ही रहना चाहिये|
सपनो का सफर जब सच के धरातल से टकराता है तब मन निराशा से घिर जाता है | उम्मीदे ना पूरी होने से कुछ लोग ड्रग्स के धुए मे अनमोल पलो को उड़ा देते है तो कुछ इतने गलत रास्ते पर चल देते है कि वापसी की कोई राह नही बचती | एक बार सोचे जरूर ............
ये किताबो मे गुलाब रखने की उम्र है ,दिल मे उम्मीदे बेहिसाब रखने की उम्र है |
इस उम में भिगाना ना अपनी पलके ये तो इन आँखों मे ख्वाब रखने की उम्र है ||

Monday 12 January 2015

लोहरी का त्यौहार- लेखक राजीव कोहली

बचपन से ही लोहरी का त्यौहार हर्ष और उल्लास का त्यौहार रहा है। अब भाई पंजाबी फॅमिली से हैं तो क्यों नहीं होगा भी। मूंगफली गजक रेवाड़ी और फुलले यानि की पॉपकॉर्न खूब मज़े में खाओ और वो भी अनलिमिटेड। कई बार तो यह त्यौहार अपनी नानी के घर मनाया। पुराने ज़माने में तो गली के बच्चे घर घर जेक लोहरी भी मांगते थे पर अब यहाँ दिल्ली में कभी ऐसा नहीं देखा। आज भी हम घर पे लोहरी मंक्टे हैं शाम को घर की बालकनी में बैठक लग जाती है कुछ पल के लिए सर्दी को भूल के लोहरी का पर्व ही याद रहता है। लोहरी नए साल के आगमन का भी पर्व है। पुरानी यादों को भुला कर नए सिरे से जिबदगी की अहरुआत करने का पर्व है। पंजाब में तो इसकी खूब धूम रहती है। मेरे लिये लोहरी का त्यौहार अपनी साडी बुरी यादों बुरे समय को भूल कर एक नए उमंग के साथ नया साल शुरू करने का त्यौहार है। आप सभी को लोहरी की लख लख बधाई।

Sunday 11 January 2015

अस्मिता के साथ मेरे सफर की शुरुआत- लेखक राजीव कोहली

यह ब्लॉग समर्पित है मेरे गुरु, मेंटर श्री अरविंद गौर सर के लिये। मुझे आज भी याद है वह शुक्रवार का दिन था एक बहचर्चित फिल्म, "टू स्टेट्स" रिलीस हुई थी। आफिस में सभी फिल्म देखने जाने का कार्यक्रम बना चुके थे। इससे पहले कई हफ्तों से मैं बड़ी शिद्दत से ढूंड रहा था, एक ऐसा थियेटर ग्रूप जहां पे अच्छा थियेटर होता हो। कई दिन तक ढाके खाने के बाद मेरे आफिस में काम कर रहे एक सहकर्मी से पता चला अस्मिता के बारे में। मुझे कहा गया, बल्कि यूं कहूँ तो येह सुझाव दिया गया की नाटक देखने आये और अरविंद सर से मिलें। 

अगर उन्होने बुलाया तो ही आप अस्मिता का अंग बन पायेंगे। इससे पेहले कभी कोई नाटक नहीं देखा था। मन में बहुत विचार विमर्श चल रहा था। जाऊँ या नहीं जाऊँ। लेकिन थियेटर में शामिल होने का ऐसा जूनून था की जाने का फैसला किया। और सच पूछिये, अपने को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ, की मैने जाने का फैसला किया। अपनी लाइफ का शायद सबसे सही फैसला था। नाटक का नाम था "दस कहानियाँ" जिसमे विभिन् लेखकों की बेहतरीन कहिंयों को मंचित किया गया। सच मानिये वो एक घंटे तीस मिनिट का नाटक तीन घंटे की किसी भी फिल्म देखने से बहुत उत्तम अनुभव था। उसमे हासना था, व्यंग था, एमोशन था, रोना था। हर कहानी दिल को चू गयी। और वहीं से शुरू हुआ मेरा सफर अस्मिता के साथ। दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, अरविंद सर का, और शिल्पी मॅम का, और ईश्वर का की मुझे ये मौका मिला है की मैं अस्मिता के साथ जुड़ा हूँ।



Saturday 10 January 2015

"धरा" - सुनील मोरवाल द्वारा लिखित

कर्मभूमि ये धरा है मेरी,
जिसकी गोद मे मेरा बचपन खेला!
आज जब मानव बढ़ रहा है तरक्की की राह पर,
तो कैसे छोड़ दूं मैं उसे अकेला!!


वनों से था जिसका सौन्दर्य,
पशु पक्षियों का जहाँ लगता था मेला!
आज वो पिंजरे मे बंद तरसते हैं अपनी आज़ादी को,
तो कैसे छोड़ दूं मैं उन्हें अकेला!!

हर तरफ पहाड़ों का साया था,
झीलों और झरनों से था जिसका यौवन अलबेला!
अब रेगिस्तान मे सिमट कर रह गयी तन्हाई जिसकी,
तो कैसे छोड़ दूं मैं उसे अकेला!!

हमेशा चाही है खुशी जिसने हमारे लिए,
हम पर आई हर विपदा को है जिसने झेला!
आज वोही माँग रही है हमसें हमारा साथ,
तो कैसे छोड़ दूं मैं उसे अकेला!!

आओ मिलकर रोकें इस प्रकृति विनाश को,
फिर से शाम की सूचक बने गोधुलि बेला!
लौटाएँगे धरती को उसका सौन्दर्य वापस,
नहीं होने देंगे उसे कभी अकेला!!

Friday 9 January 2015

डाकिया - ऋचा चतुर्वेदी द्वारा लिखित



काली साईकिल बड़ा झोला l
निज़ी सन्देशे सरकारी चोला ll

जी हाँ ! वही डाकिया जो डाँक लाता था l
अपने  कंधे पे  सन्देशे  टाँक  लाता  था ll

लाया हो पहली तन्खाह का मनी-ओडर या नयी नौकरी की बधाई l
फिर डाकिये की खातिर एसी जैसे आया हो नया जमाई ll

उस नीले अन्तेर्देशि ने तो गुढिया का रिश्ता जोड़ा था l
एक छुटके से कागज ने गली के चार लड़कों का दिल तोड़ा था ll

बिमला बुआ की चिट्ठी सबसे  अजब  अनोखी होती थी
“बाकी सब ठीक हैये लाइन हर लाइन के बाद जरूरी होती थी  ll

बढों को प्रणाम और बच्चो को प्यार l
बाबूजी की दो लाइने अम्मा पढ़वाती कितनी बार ll

वेसे चिट्ठियाँ तो कईयों की पढ़ता था बूढ़े काका की लिख भी देता था  l
कितने सलीके से उनकी बेचेनी  को उसने शब्दो मे  समेटा था ll

दुख भरे तार भी बिना झिझके पहुंचाता था ,l
बस स्याह चहेरे पे कुछ पीलापन उभर आता था ll

इतने बरसों में बन बैठा था आधे गाँव का राजदार  l
बहुत उम्मिदो से  होता था उसका इंतजार ll

हाउस-फुल जाता था उसका पी वी आर (PVR)  l
जहाँ चिट्ठियाँ थीं हीरोइन और विलेन था तार ll

चिट्ठी सबको चाहिए पर तार से इनकार l
संदेशों के खेल मे डँकिया था सुपर-स्टार ll

जी हाँ ! वही डान्किया जो डाँक लाता था l
अपने  कंधे पे  सन्देशे  टाँक  लाता  था ll

असान दिशा-ज्ञान