अपने घर के बंद उस दरवाजे से पुछा
अपनी गली के उस चौराहे से पुछा...कभी तो देखा होगा मेरे सपनो को वहा से चलते हुए...
किस्मत और निराशा की आग में जलते हुए...
पुराने उस नीम के पेड़ से पुछा...
रास्ते में भटकी उस भेड़ से पुछा...
कभी तो पुकारा होगा मेरा नाम ले के ...
कभी तो निकले होंगे मेरे सपने उन्हें सलाम दे के ...
फुनगी पे लगे उस मंजर से पुछा...
खाली पड़े उस खेत बंजर से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को मस्ती में सनकते हुए...
कभी तो देखा होगा उन् नन्हे सपनो को पनपते हुए...
आते जाते हर त्यौहार से पुछा...
सावन की पहली उस फुहार से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को नया कुछ सीखते हुए...
अपनी ही फुहार में मस्त हो भीगते हुए...
पावन उस नदी की धारा से पुछा ...
उसी नदी के किनारे से पुछा...
उन्होंने तो देखा होगा सपनो को यही जलते हुए....
अपनी धारा में ही कही बहते हुए...
पर किसी ने कुछ ना बतया ...
मुझे मेरे घर निराश ही लौटाया...
अँधेरे में बैठी कुछ सोचने लगी...
तो लगा सपने को ढूँढना भी तो एक सपना ही था...
मन में ही चुप के बैठा था कही...
वो कभी कही गया ही नही...
वो तो हमेशा से अपना ही था...
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