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Thursday 8 January 2015

काश मैं पंछी होता- लेखक राजीव कोहली

काश मैं पंछी होता।
तो शायद छू पाता आकाश को।
पर मैं हूँ एक इंसान।
जो अपनी जिंदगी से हताश हो।
खो चुका है अपनी पहचान।
काश मैं पंछी होता।
तो शायद जरूर छू पाता आकाश को। 

काश मैं पंछी होता।
उन्मुक्त हो उड़ता ही रहता।
पर नहीं मैं तो हूँ एक इंसान। 
वक़्त ने काट दिये हैं मेरे पर।
और मैने खो दी है अपनी पहचान।
अपनी जिंदगी को एक पिंजरा बना लिया है।
अपने ही झगड़ो में खुद को चोट पहुंचा। 
मैं अभी भी चाहता हूँ उड़ना।
इस कैद से आजाद हो।
काश में पंछी ही होता।
तो शायद जरूर छू पाता आकाश को। 

पंछी ने पूछा इंसान से।
की हम तो चाहे बैठे मंदिर के चबूतरे पर।
या चाहे उड़े गुरुद्वारे के आंगन में।
हम गर गिरजे की उपर से भी उड़े।
या फिर मस्जिद के चबूतरे पे।
कहलाते तो पंछी ही हैं। 
फिर क्यू ए इंसान तुमने इंसानियत को बांटा।
और बना दिया, हिन्दू , ईसाई, सिख और मुसलमान।
हमारे लिये तो तुम सब हो इंसान सिर्फ इंसान।
इसलिये तुम पंछी नहीं हो।
और ना छू पाते आकाश को।




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असान दिशा-ज्ञान