हमारे सभ्य समाज में महिलाओं
को ले कर सोच का दायरा बड़ा ही विचित्र और तिरछा है . एक तरफ तो अधिकार भी दिए तो
और कर्तव्यों की लम्बी कतार भी. रोक टोक का दायरा इतना बड़ा है की, आजादी केवल बेड़ियों
तक सिमित है एक एक गांठ खोलने में ही इतना वक़्त गुज़र जाता है की बुलाने पर लोट के
नहीं आता है. पैरों में पायल, हाथों में कंगन जेसे गहनों की रस्सियाँ पहना दी गयी है.
रीत रिवाज का टिक्का माथे पे चमका दिया. उस के उपर बंदिशों की जकड़न, और फिर शुरू
होता है तबदीली का लम्बा इंतजार....
कुछ इलाकों में अभी भी औरत
का वजूद आज भी वेसे ही है, जेसे सदियों से चला आया है. प्रकृति के अनुसार कमजोर,
ढीला, पिछड़. .सुबह से शाम तक ऑफिस घर और रसोई की भाग दौड़ में अपना वजूद खो के
बहती रहती है उमर भर. आजादी की पहेली को सुलझाती एक अधूरी तस्वीर को उभारती.
सभ्यता और समाज की पतली दीवार को फांदने की कोशिश करती. इलज़ाम और बेगुनाही को
खंगालती, अपमान और सम्मान को समेटती. फ़र्ज़ और परिस्थितियों की उंगली थामें, समय के
साथ अटूट इरादों से चलती. कामयाबी की और बढाती कदम किस्मत को कोसती. क़ाबलियत और
चुनोतियो से लड़ती, आत्मविश्वास से चलती . तरसती उस मुकाम को जो उस का हक़ है उसे पाने
को. जो सिर्फ नींद में ही पूरा हो सकता है. जरा सोचो अगर ऐसा हो सकता नींद के
खवाब को शकल दे पाती ? मुमकिन है बस पुरुष प्रधान देश में पुरुष अपनी सोच में
तबदीली ले आये, और कदम के साथ कदम मिलाये. अपनी मानसिकता को स्वच्छ बनाये .
by:RG
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